इसी धरती के एक मशहूर नाटककार शेक्सपियरजी लिख गए हैं कि ‘नाम में क्या रखा है’. ऐसा लिख कर वे नामों के साथ कुश्ती लड़वा गए हैं. बताइए भई, नाम के लिए आदमी क्या नहीं करता? मरे को जिंदा और जिंदा को मरा हुआ बताने में नाम का बड़ा रोल होता है. नाम में क्या नहीं रखा प्यारे. नाम के लिए लोग बदनाम तक होने का मौका ढूंढ़ते हैं. बदनाम होते ही उन का नाम हो जाता है, जैसे अपने आसाराम बापू. ‘बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा’, यह मंत्र न जाने कितने नामशुदा बदनाम हो कर जपते रहते हैं. शेक्सपियरजी, नाम में ही सबकुछ रखा है.
मेरा एक दोस्त दो नंबर की ग्रेजुएशन डिगरी लिए बैठा है. एक बार नाटकों की बात चली, तो तपाक से ज्ञान बघारते हुए बोला, ‘यार, सैक्सपियर ने क्या नाटक लिखा है रोमियोजूलियट...’
मैं ने फौरन उन्हें टोका, ‘यार दो नंबरी, क्यों बेचारे सीधेसादे विदेशी नाटककार का नाम बदनाम करते हो? नाम तो सही लिया करो. सैक्सपियर नहीं, शेक्सपियर बोलो.’
अब बताइए दिवंगत शेक्सपियरजी, नाम में कुछ रखा है कि नहीं? मेरे एक दूसरे दोस्त जानेमाने व्यंग्यकार हैं. वे कारखाने में नौकरी करते हैं. अखबारों में भी वे अकसर व्यंग्य कौलम लिखते हैं. एक अंगरेजीदां ने उन्हें शुभ काम का आमंत्रण अशुभ उच्चारण में भेज दिया. दोस्त का नाम है सुरेश वैश्य. अंगरेजीदां मेजबान ने लिफाफे पर उन्हें संबोधित किया ‘सुरेश वैश्या’. अच्छेभले कारखाना कामगार का नाम कोठे से जोड़ दिया. वैश्य को भैंस भी लिखा होता, तो सहन होता.
व्यंग्यकार दोस्त खुद पर हुए व्यंग्य से बिफरे हुए मुझे लिफाफा दिखाने आए. मैं ने उन्हें समझाया. उन की आग को बुझाते हुए कहा, ‘यार, गलती मेजबान की नहीं, अंगरेजी भाषा का आविष्कार करने वाले की है. चूंकि ‘राम’ को अंगरेजी में ‘रामा’ लिखा जाता है, सो आप को बेचारे ने ‘वैश्या’ लिख भेजा. मेजबान के नेक इरादे में आप का पेशा बदलने का इरादा कतई शामिल नहीं होगा.’
तो देवियोसज्जनो, नाम में ही सबकुछ रखा है मानोजानो. आप मशहूर सैक्सपियर, माफ करें शेक्सपियर के झांसे में न आएं. मैं किस से कहूं? मैं खुद भी इस नाम के फेर का सताया हुआ हूं. आप चाहें तो पत्नी का सताया भी कह सकते हैं.
एक बार फोन पर अपने सुपरिचित, सुदूर बुकस्टौल वाले से पूछ रहा था, ‘बौस, सरिता, मुक्ता नहीं आईं क्या? आएं तो बता देना?’
फोन पर मेरी बातचीत सुन रही श्रीमतीजी हाथ में सब्जी काटने वाला चाकू और बेलन एकसाथ ले कर प्रकट हुईं. वे दांत पीसते हुए गरजीं, ‘मैं रसोई में से सब सुन रही थी, बहरी नहीं हूं. तुम सूने कमरे में किन सौतनों से बतियाते रहते हो. मैं बूढ़ी हो गई हूं न? बुला लो उस सौत सरितामुक्ता को, रचाओ रासलीला.
‘शर्म नहीं आती तुम्हें 2 बच्चों के बाप हो कर भी, पराई संतानों की मांओं पर लार टपकाते हुए?’
अचानक आई मुसीबत को टालने की मैं ने कोशिश की. गुस्साई पत्नी को दूर से ही समझाया, ‘अरी मेरी सुंदरी सुनयना, मैं तुम्हारी सौतनों का नहीं, पत्रिकाओं का नाम ले रहा था. गैर की मांओं से नहीं बुकस्टौल वाले से बात कर रहा था. अपना गुस्सा शांत करो देवी, मेरी जान बख्शो. जाओ, दोबारा रसोई की ओर जाओ.’
नाम का यह फेर जो न करा दे, थोड़ा समझो. अपनी बंबई जिस का नाम मुंबई हो गया है नाम की मारी है. बंबई नगरिया का बखान अपने लंबे डौन अमिताभ ने ‘डौन’ नामक फिल्म में किया है. डौन के श्रीमुख (असलियत में किशोर कुमार के श्रीमुख) से आप ने बंबई नगरिया के नामों वाला गीत सुना ही होगा, ‘ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ...’
गीत में अमिताभजी महाराज कहते हैं, ‘कोई बंदर नहीं है, फिर भी नाम बांदरा, चर्च का गेट है चर्च है लापता, बिन धोबी का धोबी तालाब देखो...’
इस गीत से हमें बंबई या मुंबई नगरिया की काफीकुछ जानकारी हासिल होती है. जानकारी हासिल करने के लिए और भी कई सोर्स हैं जैसे अखबार, पत्रपत्रिकाएं. तमाम नामों का होनाखोना, सोना हमें इन्हीं से हराम होता है. नाम होता?है तो अखबार लेता है, वरना क्या लेगा. ‘इसे’ सम्मान, ‘उसे’ जूता, ‘मुझे’ अपमान, ‘तुझे’ जेल तो लिख नहीं देगा अखबार.
मान हो या अपमान, नाम तो जरूरी है. लेकिन साहब शेक्सपियर कहते थे, ‘नाम में क्या रखा है?’ अगर इस शीर्षक से लिखी हरि भटनागर की कहानी में भटनागरजी का नाम न छपा होता. लेखक आपत्ति जड़ता, ‘वाह जी, वाह, नाम गायब कर दिया मेरा. मैं कैसे साबित करूं कि ‘नाम में क्या रखा है’ कथा मेरी है या गैर की? अब रचना में दाम के साथ नाम हो तो ठीक वरना...’
संपादकजी कथाकार को लाख बहलाएं, ‘मान्यवर दाम लीजिए. नाम में क्या रखा है?’ तो कथाकार टेसू की तरह अड़ेगा ही, ‘वाह जी वाह, नाम ही में तो सबकुछ रखा है.
‘बताइए, आप की पत्रिका में आप की जगह संपादक में मेरा नाम छप जाए तो...? आसाराम बापू की जगह राष्ट्रपिता बापू छप जाए या राष्ट्रपिता बापू की जगह आसाराम बापू छप जाए तो...?’
नाम ही तो बदनाम होता है बंधु, चाहे वो संत का हो या संत के आश्रम का. यह और बात है कि घरवालियां अपने घर वालों का नाम नहीं लेतीं, ऐजी, ओजी, चुन्नू के पापा, मुन्नू के बापू’ जैसे शब्दों से काम चला लेती हैं. सोचती हैं कि नाम में क्या रखा है.
देवियो, आप अपना भ्रम दूर कर लें. पुलिस इसी नाम के फेर में कभीकभी शरीफ की जगह गैरशरीफ, सज्जन के बजाय दुर्जन के घर का दरवाजा खटखटाने लग जाती है. यह चूक उसे कभीकभी महंगी पड़ती है. गैरशरीफ या दुर्जन अदालत में मानहानि का केस दर्ज करा देता है. ‘नामहिं हाथी पाइए, नामहिं हाथी पांव’.
आदरणीय शेक्सपियरजी ने ‘नाम में क्या रखा है?’ जैसी बात कह कर भले ही लाखों छपास पीडि़तों को नाम के पीछे रोज पत्रिकाओं के दफ्तर की परिक्रमा से छुटकारा दिलाने की नाकाम कोशिश की हो, लेकिन छपास पीडि़त कैसे मान लें कि ‘नाम में क्या रखा है?’
उस की इस पीड़ा यानी ‘नाम की पीड़ा’ का उपचार तो पत्रपत्रिकाओं में आएदिन छपने वाले नाम से ही होता है. अगर एक दिन न छपे, तो ‘दैनिक छपास पीडि़त’ के पेट और पैरों में कुछ होने लगता है. उसे लगता है कि अखबार के दफ्तर की ओर अब दौड़े कि तब. उसे कबीर याद आने लगते हैं, ‘काल करे सो आज कर, आज कर सो अब...’
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