इन चार मुख्य तीर्थस्थानों पर 11-12 वर्षो के अंतर् से लगने वाले कुम्भ पर्व में स्नान और दान का गृहयोग बनता हैं, इस अवसर पर न केवल भारतवर्ष के हिंदूभक्त, बल्कि बाहर के देशों से भी हिन्दू कुम्भस्नान के लिए आते हैं, सामान्य तौर पर प्रति 6 वर्ष के अंतर् से कहीं -न -कहीं कुम्भ का योग अवश्य ही आ जाता हैं, इसलिए 12 वर्ष में पढ़ने वाले पर्व को अर्धकुम्भ के नाम से जाना जाता हैं इस पर्व पर श्रद्धालु, भक्तगढ स्नान दान और साधु, संतो के सत्संग, दर्शन सावन के बादलों की तरह उमड़ पढ़ते हैं, कियोंकी इससे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं, ऐसा माना जाता है की गुरु वृषभराशि पर हो, सूर्य तथा चन्द्र मकरराशि पर हो, अमावश्या हो,ये सब योग जब इकट्ठे हों, तो इस अवसर पर प्रयाग में कुम्भ का पर्व मनाया जाता है इस समय त्रिवेणी में स्नान करने वालों को एक लाख पृथ्वी की परिक्रमा करने से भी अधिक तथा सैंकड़ों वाजपेय यज्ञों और सहस्रों अश्व्मेघ- यज्ञों का पूण्य प्राप्त होता है इसी प्रकार सूर्य मेषराशि पर और गुरु कुम्भराशि पर होता है, तो उस समय हरिद्वार म कुम्भ का योग बनता है, जब सूर्य एवं चन्द्र कर्कराशि पर हों और गुरु सिंहराशि पर स्थित हों, तो उस समय गुरु वृश्चिकराशि पर और सूर्य तुलाराशी पर स्थित हो, तो उस समय उज्जैन में कुम्भ का योग बनता है, पौराणिक आक्यान के अनुसार माना जाता है की समुद्र मंथन में निकले अमृतकलश को लेकर जब धन्वन्तरि प्रकट हुए, तो अमृत को पाने की लालसा में देवताओं और दानवों के बीच छीना-झपटी होने लगी, जब अमृत से भरा कलश लेकर देवता भागने लगे, तो उस कलस को चार स्थलों पर रखा गया, इससे कलश से अमृत की कुछ बूंदें छलक क्र नीचें गिर पड़ीं, जिन-जिन स्थानों पर अमृत की ये बूंदें गिरीं गिरीं, वे चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार नासिक, और उज्जैन हैं. दुसरी मान्यता के अनुसार अमृत के घड़े लेकर गरुड़ आकाशमार्ग से उड़ चले, दानवों ने उनका पीछा किया और छीना- झपटी में घड़े से अमृत की बूंदें चार स्थानों पर टपक पढ़ीं, जिन चार स्थलों पर बून्द झलक कर गिरीं उन्हें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, और उज्जैन के नाम से जाना जाता है, इसीलिये इन चार स्थलों पर ही अभी तक कुम्भ का मेला लगता है,जहां श्रद्धालु स्नान कर पुण्यलाभ प्राप्त करते है,
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