Thursday, June 30, 2016

अम्मा खुदा के पास चली गईं, अपने हिस्से के बकरे काटने !!!


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सिराज
आपने मां को मुफलिसी से लड़ते देखा है? कैसे वो एक चतुर फ़नकार में तब्दील हो जाती है. बच्चों को घुट्टियां पिला देती हैं और ग़रीबी का फ़ाका ज़रा भी महसूस नहीं होता. कई सालों बाद जब चार आंसू आंखों में लेकर आप सोचते हैं तो कुछ लिख डालते हैं. सिराज जनसंघी ने भी लिख डाला. पढ़िए, आंखें नम हो जाएं तो आज़मगढ़ के इस लड़के को दुआ दीजिएगा.

बात उन दिनों की है, जब हम बहुत छोटे थे. जब अब्बा की दिहाड़ी के चौदह रुपये पूरी तरह खत्म हो जाते तब अम्मा हमारा पसंदीदा पकवान तैयार करतीं. तरकीब ये थी कि सूखी रोटियों के टुकड़े कपड़े के पुराने थैले में जमा होते रहते और महीनों के आखिरी दिनों में उन टुकड़ों की किस्मत खुलती. पानी में भिगोकर नर्म करके उनके साथ एक दो मुट्ठी बची हुई दालें सिल बट्टे पर पिसे हुए मसाले के साथ पतीले में डालकर पकने को छोड़ दिया जाता. जहां तक कि वो बिल्कुल मजेदार ‘हलीम’ सा बन जाता और हम सब बच्चे वो हलीम उंगलियां चाटकर खतम कर जाते. अम्मा के लिये सिर्फ पतीले की तह में लगे कुछ टुकड़े ही बचते, उनका कहना था खुरचन का मजा तुम लोग क्या जानो! और अम्मा ऐसी सुघड़ थीं कि एक दिन गोभी पकती तो अगले दिन उसी गोभी के पत्तों और डंठलों की सब्जी और ये कहना मुश्किल हो जाता गोभी मजेदार थी या डंठलों की सब्जी..?

अम्मा जब बाज़ार जातीं तो इस्लाम दर्जी की दुकान के कोने में पड़े कतरनों की पोटली बना लातीं. कुछ अरसे बाद ये कतरन तकिये के नये ग़िलाफों में भर दिये जाते क्यूंकि बक़ौल अम्मां एक तो रुई महंगी होती है और फिर रुई के तकियों में ज़रासीम बसेरा कर लेते हैं. फिर कतरनों से भरे तकियों में अम्मा रंग बिरंगे धागों से फूल पत्ती काढ़ देती थीं. कभी जब लाड आ जाता तो कहतीं “तुम शहज़ादे शहज़ादियों के तो नखरे भी निराले हैं, सोते भी फूलों पर सर रखकर हो.”
ईद के मौके पर मुहल्ले भर के बच्चे इस्लाम दर्जी से कपड़े सिलवाते, हम ज़िद करते तो अम्मा कहतीं कि वो तो मज़बूरी में सिलवाते हैं क्यूंकि उनके घरों में किसी को सीना पिरोना नहीं आता. मैं तो अपने शहज़ादे शहज़ादियों के लिये हाथ से कपड़े सिलूंगी.

अलविदा जुमा के मुबारक दिन अब्बा सफेद के टी और फूलदार छींट के दो आधे-आधे थान जाने कहां से खरीदकर लाते. सफेद के टी के थान में से अब्बा और तीनों लड़कों के और छींट के थान में से चारों लड़कियों और अम्मा के जोड़े कटते और फिर अम्मा हम सबको सुलाने के बाद सहरी तक ताहिरा आपा से मांगकर लाई गई मशीन पर सिलतीं. ताहिरा आपा हर साल इस शर्त पर मशीन देतीं कि उनका और उनके मियां का जोड़ा भी अम्मा सी के देंगी.

हम बहन भाई जब थोड़ा और सयाने हुए तो अजीब सा लगने लगा कि मुहल्ले के सारे बच्चे-बच्चियां तो नए नए रंगों के अलग-अलग चमकदार कपड़े पहनते हैं मगर हमारे घर में सब एक ही तरह के. मगर अम्मा के इस जवाब से हम मुतमईन हो जाते कि एक से कपड़े पहनने से क़ुनबे में मुहब्बत कायम रहती है और फिर ऐसे चटक मटक कपड़े का आखिर क्या फायदा जिन्हें ईद के बाद तुम इस्तेमाल ही न कर सको.
ईद उल फितर वाहिद ऐसा त्यौहार था जिस पर सब बच्चों को अब्बा एक एक रुपये का मकई वाला बड़ा सिक्का देते थे, जिसके इंतज़ार और खर्च करने का प्लान बनाने में चांदरात आंखों में ही कट जाती. सुबह सुबह नमाज़ के बाद हम बच्चों की खरीदारी शुरू हो जाती. सबसे पहले हर बहन भाई फूलचंद के ठेले से एक पन्नी वाला चश्मा लेता जिसे पहनकर जमीन पर गढ्ढा गढ्ढा दिखता, फिर सब लाल ज़बान चूरन और इमली खरीदते. वहीं बगल में सजे मिट्टी के खिलौनों को बस छूकर खुशी जाहिर करते. एक बांसुरी लेता दूसरा गुब्बारा, तीसरा लट्टू. फिर सब आपस में छीना झपटी करते और आखिर मे बस उतने ही पैसे बचते कि दो तीन बर्फ की रंगीन पेप्सी मिल सके. यहां तक कि उन्हीं दो तीन में से हम सातों बहन भाई अपना गला तर कर लेते. ये ध्यान रखते हुए कि कोई देर तक न चूसता रह जाए.

पैसे खत्म होने के बाद हम दूसरे बच्चों को दीवार पर लगे गुब्बारों को छर्रे वाली बंदूक से फोड़ते हुए बड़ी हसरत से देखते. बंदर और भालू का तमाशा भी अक्सर मुफ्त हाथ आ जाता. बड़े वाले गोल से झूले में बैठने से हम सब डरते थे और उसका टिकट भी बहुत महंगा था.

बकरा ईद को सबके यहां कुरबानी होती सिवाय हमारे. मगर यहां भी अम्मा ने घोल बना रखा था कि जो लोग किसी वजह से कुर्बानी नहीं कर सकते उनके बकरे अल्लाह मियां ऊपर जमा कर रखता है. जब हम ऊपर जाएंगे तो एक साथ सब जानवर कुरबान करेंगे, इंशा अल्लाह!
एक दफा गुड़िया ने पूछा कि “अम्मा! क्या हम जल्दी ऊपर नहीं जा सकते..”?

हर सवाल पर मुतमईन कर देने वाली अम्मा चुप सी हो गई और हमें सहन में छोड़कर इकलौते कमरे में चली गई, हम बच्चों ने पहली बार कमरे से सिसकियों की आवाजें आती सुनीं मगर झांकने की हिम्मत न हुई. समझ में न आया कि आखिर गुड़िया की बात पर रोने की क्या बात थी.

कोई छ: सात माह बाद एक दिन अम्मा बावर्चीखाने में काम करते करते गिर पड़ीं. अब्बा काम पर थे और हम सब स्कूल में. घर आकर पता चला कि ताहिरा आपा हमारी अम्मा की चीख सुनकर दौड़ी-दौड़ी आईं और फिर गली के नुक्कड़ पर बैठने वाले डाक्टर शमसाद को बुला लाईं.

डाक्टर ने कहा कि अम्मा का दिल कोई हरकत नहीं कर रहा है.

जनाज़े के बाद एक रोज़ गुड़िया ने मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया और ये कहते हुए फूट पड़ी कि खुद तो ऊपर जाकर अगली ईद पर अकेले अकेले बकरे काटेंगी और हमें यहीं छोड़ गईं.

ओह मां!

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