Wednesday, September 16, 2020

अनसुया आईची आरती

अनसुया आईची आरती
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अनुसया आई भवानी देवी ,आदी शक्ती तु जननी ।
अति प्रेमाने करुनी आरती , मस्तक ठेवितो मि चरणी ।।धृ।।

दिससी वेडी अससी भोळी । महान शक्ती तुज जवळी ।।
येतो प्रत्यय तव भक्तांना । संकट त्यांचे तु टाळी ।।
कुठेही राहीशी ग्रामी फिरशी । परी नसे तुज भान मुळी ।।
आत्मस्वरुपी तल्लीन असुनी । ब्रह्मानंद उचंबळी ।।१।।

अनुसया माते नामे जपता । कलीकालही थरथरती ।।
तव नामाचा महीमा गाता । असंख्य पापे दुर होती ।।
अति श्रध्देने घेवुनी दर्शन । असाध्य रोगी बरे होती ।।
ऐसा महीमा तव कृपेचा वर्णू माऊले मी कीती ।।२।।

भक्त तुझे जे धावा करीती । त्यांच्या साठी धावुन जासी ।।
अवघ्या चिंता निवारुनीया । संकट मुक्त मग करीशी ।।
दिन दयाळे भक्त वत्सले । माय माऊले अनसुये ।।
पापी जनही उध्दरताती । केवळ तुझीया कृपे मुळे ।।३।।

चिंध्या चिरकुट्या करी घेवुनी । पिशापरी तु भासविली ।।
भुत भविष्य कथन करुनी । निज भक्तांना विचविशी ।।
बाळ दिनु हा नम्र होवुनी । आला शरण तव चरणी ।।
ओवाळीतो तुला आरती । पारडसिंगा निवासीनी ।।४।।।                                                  
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Saturday, September 5, 2020

*जटायु की बात* 💐

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*जटायु की बात* 💐

    सीता हरण के पश्चात विह्वल राम, लक्ष्मण के साथ वन में भटक रहे थे। कभी किसी पशु से पूछते, तो कभी किसी पक्षी से... कभी पेड़ की पत्तियों से पूछने लगते, "क्या तुमने मेरी सीता को देखा है?"
   वस्तुतः विक्षिप्त की भाँति पशु-पक्षियों से सीता का पता पूछता वह व्यक्ति "मर्यादा पुरुषोत्तम राम" नहीं था, वह भारत का एक सामान्य पति था जिसके लिए पत्नी "अर्धांगिनी" थी, और जो अपनी पत्नी से टूट कर प्रेम करता था। राम केवल सीता के लिए नहीं रो रहे थे, बल्कि सीता के रूप में स्वयं से अलग हो चुके अपने ही आधे हिस्से के लिए रो रहे थे।
    यूँ ही वन में रोते-भटकते राम को भूमि पर घायल पड़े गिद्धराज जटायु मिले। जटायु ने राम को देखते ही कहा, "आओ राम! प्राण तुम्हारी ही राह निहार रहे थे।"
    राम-लक्ष्मण दौड़ कर जटायु के पास पहुँचे। राम ने भूमि पर बैठ कर घायल जटायु का शीश अपनी गोद में रख लिया, और अपने अंगवस्त्र से उनके शरीर का रक्त पोंछने लगे। जटायु ने मुस्कुरा कर कहा, "रहने दो राम! यह रक्त ही मेरा आभूषण है। पुत्री सीता की रक्षा के लिए लड़ने पर प्राप्त हुआ प्रसाद है यह, इसे रहने दो..."
    सीता का नाम सुनते ही राम व्यग्र हो गए। बोले, "आपने देखा है मेरी सीता को? कौन हर ले गया उसे? किससे युद्ध करना पड़ा आपको? किसने की आपकी यह दशा? बोलिये गिद्धराज..."
     "लंकाधिपति रावण ने! उसी ने पुत्री सीता का हरण किया है। वह उसे ले कर दक्षिण दिशा की ओर गया है, सम्भवतः अपनी लंका में... मैं तुम्हें यही बताने के लिए ढूंढ रहा था पुत्र!" जटायु ने काँपते स्वर में कहा।
     "रावण?" राम के चेहरे पर पसरी चिन्ता की रेखाएँ और गहरी हो गईं। उन्होंने कुछ सोच कर कहा, "तो आपने उससे युद्ध क्यों किया गिद्धराज? आप तो जानते थे कि वह महा-बलशाली है। फिर यूँ प्राण देने के लिए क्यों उतर गए?"
     जटायु हँस पड़े। बोले,"मैं जानता था कि रावण से उलझने का अर्थ मृत्यु है, पर मुझे यह मृत्यु ठीक लगी। यह सभ्यताओं का युद्ध है राम! इसे टाला नहीं जा सकता। तटस्थता का ढोंग करने वाले मूर्ख भी जानते हैं कि अत्याचारी राक्षसों से युद्ध का दिन निकट है अब। उनसे युद्ध नहीं किया गया तो वे हमें खा जाएंगे, सभ्यता नष्ट हो जाएगी। अब इस युद्ध के हवन कुंड में किसी न किसी को तो प्रथम आहुति देनी ही थी न, सो मैंने दे दी। भविष्य स्मरण रखेगा कि राम के कालखण्ड में धर्म के लिए सबसे पहला बलिदान जटायु ने दिया था। इस शरीर का इससे अच्छा उपयोग और क्या होता राम!"
     राम अचंभित थे। बोले,"किन्तु वे राक्षस हैं श्रेष्ठ! बर्बर, असभ्य, अत्याचारी... उनको कैसे पराजित किया जा सकता है?"
     "सत्ता का युद्ध भले बर्बरता के बल पर जीत लिया जाय राम! पर सभ्यताओं का युद्ध बलिदान के बल पर जीता जाता है। आर्यावर्त के पास जब तक राष्ट्र और धर्म के लिए बलिदान होने वाले जटायु रहेंगे, उसे कोई पराजित नहीं कर सकता। तुम आगे बढ़ो और नाश करो इस राक्षसी असभ्यता का! मानवों का जो झुंड स्त्रियों का आदर नहीं करे, उसका नाश हो जाना ही उचित है। एक सीता का हरण ही स्वयं में इतना बड़ा अपराध है कि समूची राक्षस जाति को समाप्त कर दिया जाय।" जटायु का मस्तक गर्व से चमक उठा था।
     राम के रोम-रोम पुलकित हो उठे थे। उनकी आँखों में जल भर आया। वे चुपचाप जटायु का माथा सहलाने लगे। जटायु ने राम के अश्रुओं को देखा तो बोले, "मेरी मृत्यु का शोक न करो राम! मेरी मृत्यु पर गर्व करो। गर्व करो कि तुम्हारे भारत की गोद में अब भी वैसे लोग हैं जो निहत्थे हो कर भी रावण जैसे शक्तिशाली योद्धाओं से टकराने का साहस रखते हैं। गर्व करो कि तुम्हारे लोग अब भी धर्म की रक्षा के लिए लड़ते हैं, किसी को लूटने के लिए नहीं। गर्व करो कि तुम्हारे लोग बलिदान देना भूले नहीं है। मेरी मृत्यु पर शोक न करो पुत्र! शोक न करो..."
     राम की भुजाओं की नसें फड़क उठीं। उनका स्वर कठोर हो गया। बोले, "आपके वृद्ध शरीर पर किये गए एक-एक वार का मूल्य चुकाना होगा रावण को! राक्षस जाति का अत्याचार अपने चरम पर पहुँच गया है, अब उनका नाश होगा। समय देखेगा कि धर्म का एक योद्धा राम अकेले ही कैसे समस्त अत्याचारियों को दण्ड देता है। मुझे बस इतनी पीड़ा है कि आपको मेरे लिए अपने प्राण देने पड़े।"
    "ऐसा न कहो राम! जब तक जटायु नहीं मरते, तब तक सभ्यता को राम नहीं मिलता। राम को पाने के लिए हर कालखण्ड में किसी न किसी जटायु को मरना पड़ता है। पर यह भी सत्य है कि जीने वाले कभी न कभी मर ही जाते हैं, पर जो लड़ कर मरते हैं वे अमर हो जाते हैं।" जटायू के स्वर मन्द पड़ने लगे थे। उन्होंने आँखें मूँद ली... वे राम के लिए, राम को छोड़ कर, राम के लोक के लिए निकल गए।
    राजपुत्र राम ने उसी वन में अपने हाथों से चिर-तिरस्कृत गिद्धराज का अंतिम संस्कार किया। उस चिता से निकलती अग्नि कह रही थी, "जो लड़ कर मरते हैं, वे अमर हो जाते हैं। उन पर शोक नहीं गर्व करना चाहिए।"
    समय आज भी जटायु की बात दुहराता रहता है।