मुहर्रम क्या है?
हम देखते है की हर साल, मुहर्रम के मौके पर कुछ लोग “या हुसैन” के नारे लगते हुए, रोते हुए, अपने सीनो को पिटते हुए बहार निकलते है:-क्या आपने कभी सोचा की यह लोग कौन है?- यह लोग ऐसा क्यों कर रहे है?- यह मुहर्रम क्या है?- क्या मेरी ज़िन्दगी से इसका कुछ लेना देना है?मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महिना है जो चाँद के हिसाब से चलता है जिसे हिजरी साल भी कहा जाता है. सन 61 के मुहर्रम महीने में, जो आज से तक़रीबन 1400 साल पहले गुज़रा, नबी मुहम्मद (स) के नवासे, इमाम हुसैन (अ) को उनके 72 साथियों केसाथ बेदर्दी से कर्बला, इराक़ के बियाबान में ज़ालिम यज़ीदी फ़ौज ने शहीद कर दिया था.यजीद एक ज़ालिम बादशाह था जो समाज में मज़हब के नाम पर बुरी बाते लाना चाहता था जिससे की समाजी ज़िन्दगी की मजबूती टूट जाए और इंसानियत पारा पारा हो जाए. अपने ऐशो आराम और नाजायज़ ख्वाहिशात को पूरा करने के लिए पुरे समाज को अपनी बली चडाने के लिए तैयार यज़ीद के खिलाफ कोईखड़े होने की हिम्मत नहीं कर रहा था और ऐसे में इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ उठ खड़े हुए और यजीद को अपने नाजायज़ मकासिद में कामियाब नहीं होने दिया.यजीदी फौजों ने इमाम हुसैन (अ) के छोटे से कारवान को जिसमे बूढ़े, औरते और बच्चे भी शामिल थे, कर्बला के बियाबान में घेर लिया और उन पर पानी बंद कर दिया. यजीद की बस एक ही शर्त थी;मज़हब के नाम पर उसकी नाजायज़ ख्वाहिशात के सामने अपना सर झुका दो नहीं तो शहादत के लिए तैयार हो जाओ.इमाम हुसैन (अ) के साथियों ने इमाम का ऐसे वक़्त में मजबूती से साथ दिया और यजीदी फौजों के सामने डट कर खड़े हो गए, यहाँ तक के शहादत को गले लगा लिया. ज़ालिम यज़ीदी फ़ौज ने सिर्फ उम्र में बड़े लोगो को ही नहीं शहीद किया, बल्कि छे महीने के छोटे अली असगर को भी अपने बाप की गोद में तीरके वार से शहीद कर दिया. जंग के खात्मे के बाद यज़ीदी फ़ौज ने औरतो और बच्चो को कैदी बना कर यजीद के पास शाम भेज दिया, जहाँ उन्हें कैद खानेमें सख्तियाँ झेलनी पड़ी और बहोत दिनों बाद वहां से आज़ादी मिली.हर साल 10 मुहर्रम को इसी इमाम हुसैन (अ) के इंकेलाबी कारवान की याद में मुहर्रम बरपा किया जाता है, जिसे आशुरा भी कहते है.इस रोज़ मुसलमान मस्जिदों और इमामबाड़ो में जमा हो कर इमाम हुसैन (अ) की मजलिस करते है, उनकी याद में जुलूस निकालते है, उनका अलम उठाते है (जैसा उन्होंने कर्बला के मैंदान में हक़ का झंडा उठाया था) और मातम करके अपने ग़म को ज़ाहिर करते है और ये बताते है की अगर हम कर्बला के मैदान में होते तो ज़रूर इमाम हुसैन (अ) का साथ देते और समाज को खराब होने से बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी दे देते.जो कारवान इमाम हुसैन (अ) ने 1400 साल पहले शुरू किया था वह आज भी जारी है. हर साल, आज़ादी के दिल दादा और हक पर चलने वाले अफराद अपनी कसमो कोदोहराते है और अपने अन्दर की और समाज की हर बुराई के खिलाफ लड़ने की कसम खाते है.जब कभी हम दुनिया में भ्रष्टाचार और ज़ुल्म देखे और अपने आप को अकेला महसूस करे तो कर्बला के पैग़ाम को याद करे जो हमे याद दिलाता है की अगर ज़ुल्म के खिलाफ मुकाबले में अकेले हो या तादाद में कम हो तो थक कर घर में ना बैठ जाओ. सच्चाई की राह में अगर क़दम आगे बढाओगे तो याद रखो की जीत हमेशा सच्चाई की ही होगी; फिर चाहे उस सच्चाई के लिए हमें अपनी जान क्यों ना देनी पड़े.आज भी इतिहास गवाह है कि ज़ालिम यजीद का नाम मिट गया और नामे इमाम हुसैन (अ) आज तक जिंदा है और हमेशा ज़िंदा रहेगा. और जो पैग़ाम अपने क़याम से उन्होंने दिया था वो हमेशा हमेशा बाकी रहेगा. इमाम हुसैन (अ) और मुहर्रम का पैग़ाम सारी इंसानियत के लिए है और इसी रास्ते पर चलते हुए हम दुनिया को रहने के लिए एक अच्छी जगह बनाने में कामियाब हो सकते है.